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"कुसुमस्तबकस्येव� द्वयीवृत्तिर्मनस्विनः। मूर्ध्नि वा सर्वलोकस्य� विशीर्येत वनेऽथवा॥ फूलों की तरह मनस्वियों की दो ही गतियाँ होती हैं; वे या तो समस्त विश्व के सिर पर�शोभित�होते हैं या वन में अकेले मुरझा जाते हैं॥"